इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

दृष्टि आईएएस ब्लॉग

पर्यावरण संरक्षण के लिए वैश्विक सरपंचों की जतन

चारों तरफ हरे-भरे खेत, पेड़-पौधे, पहाड़, पक्षियों की चहचहाहट, नदियों का कल-कल निनाद करता हुआ जल, बारिश की फुहारें और गुनगुनी सी धूप किसे पसंद नहीं होतीं। ज़ाहिर सी बात है कि हर इंसान प्रकृति के मनोरम नज़ारे को देखना चाहता है, उसके करीब रहना चाहता है। उत्तराखंड व हिमाचल जैसे राज्यों में लगातार बढ़ रही पर्यटकों की भीड़ इस बात का प्रमाण है कि भले ही लोग बड़ी-बड़ी इमारतों में रहते हों, बड़े-बड़े कारखाने व कंपनियों में काम करते हों लेकिन मानसिक सुकून के लिये वे प्रकृति की गोद ही ढूंढते हैं। अब ज़रा एक क्षण के लिये सोचिए कि अगर आपसे ये गोद छिन जाए; आप जिधर भी नज़र दौड़ाएं उधर ऊंचे-ऊंचे भवन, होटल्स, दुकानें और शोरूम, हाईवे आदि के अलावा कुछ न दिखे तो….। डर गए ना..। असल में, जिस परिस्थिति की कल्पना मात्र से ही हमारी रूह कांप जाती है वो हकीकत में घटित हो जाए तो कितना खतरनाक होगा। इसी संदर्भ में कवयित्री अनामिका अंबर जी लिखती हैं-

धरा पर चंदा की चाँदनी और गगन पे तारा नहीं मिलेगा
कदर जो कुदरत की न हुई तो कोई नज़ारा नहीं मिलेगा
पनाह देते हैं छांव देते, सफर में चलने को पाँव देते
हरा-भरा न हो ज़हान तो कहीं गुजारा नहीं मिलेगा

औद्योगिक स्पर्धा के बाद से दुनियाभर के देशों ने अधिक से अधिक मुनाफा कमा लेने की हवस के चलते पर्यावरण व प्रकृति का दोहन करना शुरू किया। लेकिन जल्दी ही इसके दुष्परिणाम दिखने लगे। नदियां मैली होने लगीं, धरती का तापमान बढ़ने लगा, ग्लेशियर्स पिघलने लगे, समुद्र का जलस्तर बढ़ने लगा, तटीय इलाके डूबने लगे, हवाएं जहरीली होने लगीं, बेमौसम बारिश व मौसम परिवर्तन से कृषि प्रभावित होने लगी, खाद्यान्न संकट की घंटी बजने लगी और तब जाकर दुनिया को समझ में आया कि हम जिस तरह से स्पर्धा की दौड़ में प्रकृति व पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं, उससे हम ज्यादा दिनों तक इस ग्रह को इंसानों के रहने लायक नहीं रख पाएंगए। और हम सबको ऐसी परिस्थिति का सामना न करना पड़े; समय रहते हम पर्यावरण के संरक्षण को लेकर सचेत हो जाएं, इसके लिये विगत कई सालों से न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रकार के कदम उठाए जा रहे हैं। हम इस ब्लॉग में पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने और टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए पर्यावरण सम्मेलन व संधियों के बारे में जानेंगे।

रामसर सम्मेलन-1971: रामसर सम्मेलन "पृथ्वी की किडनी" कही जाने वाली आर्द्रभूमि से संबंधित है। इसका आयोजन 2 फरवरी 1971 को ईरान के रामसर शहर में किया गया था और 21 दिसंबर 1975 से यह प्रभाव में आया। यह यूनेस्को द्वारा स्थापित एक अंतर-सरकारी संधि है जो आर्द्रभूमि एवं उनके संसाधनों के संरक्षण व उचित उपयोग के लिये रूपरेखा प्रदान करती है। भारत ने 1 फरवरी 1982 को इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे। आपकी जानकारी के लिये बता दें कि, जनवरी 2024 तक रामसर कन्वेंशन में 172 देश शामिल हैं। इतना ही नहीं, आर्द्रभूमि हमारे लिये कितना ज़रूरी हैं, इसके बारे में वैश्विक जागरूकता बढ़ाने के लिये हर साल 2 फरवरी को दुनिया भर में आर्द्रभूमि दिवस मनाया जाता है।

स्टॉकहोम सम्मेलन-1972: इस सम्मेलन से वास्तव में समकालीन ‘पर्यावरणीय युग’ की शुरुआत हुई। इसने कई मायनों में, धरती की चिंताओं को मुख्यधारा में ला दिया। यह धरती के पर्यावरण पर पहला सम्मेलन था जिसका आयोजन 1972 में 5 से 16 जून तक स्टॉकहोम में किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य धरती के पर्यावरण और प्राकृतिक स्रोतों को बचाने के लिये एकसमान सरकारी ढांचा तैयार करना था। इसीलिए इसकी थीम ‘ओनली वन अर्थ ('Only One Earth)’ रखी गई थी। इस सम्मेलन में 122 देशों ने भाग लिया था जिसमें से 70 गरीब और विकासशील देश थे। जब उन्होंने 16 जून को स्टॉकहोम-घोषणापत्र को स्वीकार किया तो वे अनिवार्य रूप से 26 सिद्धांतों और एक बहुपक्षीय पर्यावरण व्यवस्था में स्थापित एक कार्ययोजना के लिये प्रतिबद्ध हो गए। इन अति-महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक यह भी था कि किसी देश की संप्रभुता में यह विषय भी शामिल होगा कि वह अन्य देशों के पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए। यह वैश्विक रूप से हस्ताक्षरित पहला दस्तावेज था, जिसने ‘विकास, गरीबी और पर्यावरण के बीच अंतर्संबंध’ को मान्यता दी।

एक और ज़रूरी बात ये कि इस सम्मेलन का विचार सबसे पहले स्वीडन द्वारा प्रस्तावित किया गया था। इसलिये इसे "स्वीडिश इनिशिएटिव" भी कहा जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में स्टॉकहोम सम्मेलन से पहले पर्यावरण कोई ऐसा कार्यक्षेत्र नहीं था जिससे अलग से निपटा जाए, न हि यह किसी देश या वैश्विक चिंता का विषय था, जिसके चलते 1972 तक किसी देश में पर्यावरण मंत्रालय नहीं था। यहां तक कि, नार्वे के प्रतिनिधियों ने सम्मेलन से लौटने के बाद पर्यावरण के लिये मंत्रालय बनाने का निर्णय लिया। सम्मेलन के मेजबान देश, स्वीडन ने भी कुछ सप्ताह के बाद ऐसा ही फैसला लिया।

इस सम्मेलन के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का जन्म हुआ। यूएनईपी का मिशन राष्ट्रों और लोगों को भविष्य की पीढ़ियों से समझौता किए बिना उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिये प्रेरित करना, सूचित करना और सक्षम बनाना है। इसका मुख्यालय केन्या के नैरोबी में है।

हेलंसिकी सम्मेलन-1974: इस सम्मेलन का आयोजन फिनलैंड के हेलंसिकी शहर में 22 मार्च 1974 में किया गया था। इसका मुख्य विषय ‘समुद्री पर्यावरण की रक्षा करना’ था। लेकिन इस विषय को स्पष्ट रूप से परिभाषित न किए जाने के कारण यह सम्मेलन असफल हो गया।

लंदन सम्मेलन-1975: इस सम्मेलन का आयोजन ब्रिटेन के लंदन शहर में 1975 में किया गया था। इस सम्मेलन का मुख्य विषय ‘समुद्री कचरे का निस्तारण’ रखा गया था, जिसके अंतर्गत कहा गया सभी बाह्य स्रोतों से आने वाले कचरे को बाहर ही रोका जाएगा, और समुद्र में मौजूद कचरे का प्रभावी निस्तारण किया जाएगा।

बॉन सम्मेलन-1979: यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के तहत एक अंतर-सरकारी संधि है जो जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण से संबंधित है। इस संधि पर वर्ष 1979 में हस्ताक्षर किये गए थे लेकिन इसे 1983 से लागू किया गया। भारत भी वर्ष 1983 से ही इसका एक पक्षकार है। इसका उद्देश्य स्थलीय, समुद्री और एवियन प्रवासी प्रजातियों को उनकी सीमा में संरक्षित करना है।

इसके अलावा, 1979 में ही 12-13 फरवरी को, स्विट्जरलैंड के जिनेवा में पहला वैश्विक जलवायु सम्मेलन (WCC) आयोजित किया गया। उसके नौ साल बाद यानी 1988 में जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC) का गठन किया गया जिसने 1990 में जलवायु परिवर्तन पर अपनी पहली मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की। फिर एक साल बाद 1991में अंतर सरकारी वार्ता समिति (आईएनसी) की पहली बैठक हुई। वर्तमान में जेनेवा कन्वेंशन को मानने वाले देशों की सदस्य संख्या 194 है।

वियना सम्मेलन-1985: यह ओज़ोन परत के संरक्षण के लिये एक बहुपक्षीय पर्यावरण समझौता है। इस पर 1985 के वियना सम्मेलन में सहमति बनी और 1988 में इसे लागू किया गया। वहीं, 16 सितंबर 2009 को, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के साथ वियना कन्वेंशन को सार्वभौमिक रूप से अनुमोदित किया गया था और इस प्रकार यह संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में सार्वभौमिक अनुसमर्थन प्राप्त करने वाली पहली संधि बन गई। वियना कन्वेंशन के अंतर्गत 198 सदस्य हैं। भारत भी वियना कन्वेंशन का सदस्य है।

मॉट्रियल प्रोटोकॉल-1987: ओजोन क्षरण के हानिकारक प्रभावों को देखते हुए 16 सितंबर 1987 को कनाडा के मॉन्ट्रियल में एक अंतराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसे मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा जाता है । 1 जनवरी, 1989 से प्रभाव में आई इस संधि की पहली बैठक हेलसिंकी में हुयी थी। तब से अभी तक इसमें सात संशोधन 1990 (लंदन), 1991 (नैरोबी), 1992 (कोपेनहेगन), 1993 (बैंकाक), 1995 (वियना), 1997 (मॉन्ट्रियल), और 1999 (बीजिंग) हो चुके हैं। इस संधि को 197 देशों द्वारा समर्थन दिया गया है। इस प्रोटोकॉल के समर्थकों का मानना है कि अगर इस अन्तर्राष्टीय समझौते का पालन किया जाता है तो 2050 तक ओजोन परत फिर से हासिल हो सकती है। दिलचस्प यह है कि इस दिवस की याद में ही प्रत्येक वर्ष 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है।

बेसल कन्वेंशन-1989: बेसल कन्वेंशन 22 मार्च 1989 को अपनाया गया और 5 मई 1992 को लागू हुआ। यह खतरनाक अपशिष्टों और अन्य अपशिष्टों के सीमापार संचालन को नियंत्रित करता है और इसके पक्षकार देशों को यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य करता है कि ऐसे अपशिष्टों का प्रबंधन और निपटान पर्यावरणीय दृष्टि से उचित तरीके से किया जाए। इस कन्वेंशन में जहरीले, विषैले, विस्फोटक, संक्षारक, ज्वलनशील, इकोटॉक्सिक और संक्रामक कचरे को शामिल किया गया है।

पृथ्वी शिखर सम्मेलन-1992: यह सम्मेलन स्टॉकहोम सम्मेलन की 20वीं वर्षगांठ पर आयोजित किया गया था, जो कि विशेष रूप से 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट से प्रेरित था। इसे रियो सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इसका आयोजन 1992 में 3 से 14 जून तक ब्राज़ील के शहर रियो डी जनेरियो में हुआ था, जिसमें 178 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन का मुख्य विषय पर्यावरण की सुरक्षा के लिये सतत विकास को अपनाने हेतु वैश्विक कार्रवाई का एक खाका (ब्लूप्रिंट) तैयार करना था, जिसे एजेंडा 21 के नाम से जाना जाता है।

क्योटो प्रोटोकॉल-1997: क्योटो प्रोटोकॉल यूएनएफसीसीसी (UNFCCC) से जुड़ा एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी हेतु बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित करके अपनी पार्टियों को इसके प्रति प्रतिबद्ध करता है। इस प्रोटोकॉल पर 11 दिसंबर 1997 को हस्ताक्षर किए गए और 16 फरवरी 2005 को यह प्रभाव में आया। यही नहीं, प्रोटोकॉल के कार्यान्वयन के लिये विस्तृत नियमों को वर्ष 2001 में माराकेश में आयोजित कॉप-7 में अपनाया गया था, जिसके चलते इसे माराकेश समझौते के रूप में जाना जाता है। इस प्रोटोकॉल के पहले चरण (वर्ष 2005-12) में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 5 फीसदी की कटौती का लक्ष्य दिया था। वहीं, इसके दूसरे चरण (वर्ष 2013-20) में औद्योगिक देशों द्वारा उत्सर्जन को कम-से-कम 18 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य दिया गया।

रॉटरडैम सम्मेलन-1998: रॉटरडैम कन्वेंशन एक कानूनी रूप से बाध्यकारी लेकिन स्वैच्छिक सम्मेलन है जो विषाक्त रसायनों के उपयोग को सीमित करने का प्रयास करता है। इस पर 10 सितंबर, 1998 को नीदरलैंड के रॉटरडैम में हस्ताक्षर किए गए थे और 24 फरवरी 2004 को इसे लागू किया गया था।

जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल-2000: इस संधि का पूरा नाम कार्टाजेना प्रोटोकॉल ऑन बायोसेफ्टी टू कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी है। इसे साल 2000 में जैव सुरक्षा पर एक पूरक समझौते के रूप में अपनाया गया, और 2003 में इसे लागू किया गया।

दूसरा पृथ्वी शिखर सम्मेलन-2002: इसका आयोजन पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1992 में गरीबी, अधिक जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के संबंध में पहचानी गई समस्याओं को हल करने के लिये किया गया था। इसमें मुख्य रूप से सदस्य देशों की सामूहिक ताकत और उनके सहयोग, महिला सशक्तीकरण, बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया। इसके अलावा, द्वितीय पृथ्वी शिखर सम्मेलन 2002 के बाद कुछ और विकास हुए जैसे- 2005 का क्योटो प्रोटोकॉल, 2007 का बाली एक्शन प्लान और उससे प्रेरित 2009 का कोपेनहेगन समझौता, 2010 में कैनकन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन आदि।

नागोया प्रोटोकॉल-2010: नागोया प्रोटोकॉल को 29 अक्टूबर 2010 को जापान के नागोया में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज की दसवीं बैठक यानी कॉप-10 में अपनाया गया था, हालांकि यह 12 अक्टूबर 2014 को प्रभावी हुआ। यह प्रोटोकॉल यूएनसीबीडी (संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी) का एक पूरक दस्तावेज है। इस प्रोटोकॉल का मुख्य उद्देश्य आनुवंशिक संसाधनों तक पहुँच और उनके उपयोग से होने वाले लाभों का उचित तथा न्यायसंगत बँटवारा करना है। भारत भी नागोया प्रोटोकॉल का सदस्य है।

रियो+20 शिखर सम्मेलन-2012: साल 1992 में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में तैयार किए गए रोडमैप की उपलब्धियों और विफलताओं पर चर्चा करने के लिये 20 वर्षों के बाद, साल 2012 में एक और पृथ्वी शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे सतत विकास पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण विश्व शिखर सम्मेलन 2012 या रियो+20 शिखर सम्मेलन कहा जाता है। इसमें 172 सरकारी अधिकारियों, देशों के प्रमुखों, कई गैर सरकारी संगठनों और विभिन्न देशों के पर्यावरण विशेषज्ञों ने भाग लिया था।

दोहा वार्ता-2012 (कॉप-18) वर्ष 2012 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 26 नवंबर से 8 दिसंबर तक कतर की राजधानी दोहा में हुआ था। इसके तहत समर्थनकारों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ाने और कमजोर देशों को इसे अपनाने में मदद करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। इस सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल को आगे 8 वर्ष यानी 2020 तक जारी रखने पर सहमति बनी।

वारसॉ सम्मेलन-2013 (कॉप-19): इस सम्मेलन का आयोजन साल 2013 में पोलैंड के वारसॉ में हुआ था। इसमें कहा गया कि सभी देश 2015 तक अपना आईएनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान) घोषित करेंगे।

मिनामाता कन्वेंशन-2013: मिनामाता कन्वेंशन 2013 में हस्ताक्षरित एक अंतरराष्ट्रीय संधि है। इस कन्वेंशन का उद्देश्य मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को पारे और इसके यौगिकों के हानिकारक प्रभावों से बचाना है। इस सम्मेलन का नाम जापानी शहर मिनामाता के नाम पर रखा गया है।

लीमा वार्ता-2014 (कॉप20): इस सम्मेलन का आयोजन साल 2014 में पेरू के लीमा शहर में हुआ था। लीमा सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी कि देशों का योगदान उनकी वर्तमान प्रतिबद्धताओं से अधिक होना चाहिए। साथ ही, पेरिस बैठक की पृष्ठभूमि की तैयार की गई।

पेरिस समझौता-2015: इसे कॉप- 21 के सम्मेलन के रूप में भी जाना जाता है। यह एक ऐतिहासिक पर्यावरणीय समझौता है जिसे वर्ष 2015 में जलवायु परिवर्तन और इसके नकारात्मक प्रभावों को दूर करने के लिये अपनाया गया था। खास बात ये है कि इसने क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लिया जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये पूर्व में किया गया समझौता था। पेरिस समझौते का उद्देश्य वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करना है, ताकि इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर (Pre-Industrial level) से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सके।

माराकेश सम्मेलन-2016 (कॉप-22): इस सम्मेलन का आयोजन मोरक्को के माराकेश में हुआ था। इसमें जर्मनी ने 2050 तक अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 80 से 95% तक कम करने के लिये अपनी जलवायु कार्ययोजना 2050 प्रस्तुत की।

बॉन सम्मेलन 2017 (कॉप-23) इस सम्मेलन का आयोजन साल 2017 में जर्मनी के बॉन में किया गया था। यह एक छोटे विकासशील राज्य द्वारा आयोजित किया जाने वाला पहला कॉप था, जिसमें फिजी ने अध्यक्षता की थी।

जलवायु परिवर्तन सम्मेलन-2018 (कॉप-24): पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित इस सम्मेलन के तहत वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को लागू करने के लिये एक ‘नियम पुस्तिका’ को अंतिम रूप दिया गया था। इस नियम पुस्तिका में जलवायु वित्तपोषण सुविधा और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के अनुसार की जाने वाली कार्रवाइयाँ शामिल हैं।

मैड्रिड जलवायु परिवर्तन सम्मेलन-2019 (कॉप-25): इस सम्मेलन का आयोजन स्पेन के मैड्रिड में हुआ था। इस दौरान बढ़ती जलवायु तात्कालिकता के संबंध में कोई ठोस योजना मौजूद नहीं थी।

कॉप- 26 जलवायु सम्मेलन-2021: यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया।

27 जलवायु सम्मेलन-2022: इस सम्मेलन का आयोजन 7-18 नवंबर 2022 के मध्य, मिस्र के शर्म-अल-शेख में हुआ। इसमें जलवायु परिवर्तन को प्रमुख संकट मानते हुए वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने के साथ-साथ क्षति के समाधान को आधिकारिक तौर पर एजेंडे में शामिल किया गया।

कॉप-28 जलवायु सम्मेलन-2023: इस सम्मेलन का आयोजन संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में हुआ। जिसमें 197 देशों के प्रतिनिधियों ने ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को रोकने के लिये अपनी पहलों को प्रस्तुत किया और भविष्य की जलवायु कार्रवाइयों पर चर्चा में भागीदारी की। इसमें वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने और ऊर्जा दक्षता सुधार की वैश्विक औसत वार्षिक दर को दोगुना करने का आह्वान किया गया है।

यह सच है कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलनों के विकास ने भारत सहित दुनिया भर में पर्यावरण कानूनों को आकार देने और उन्हें प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन एक विकट समस्या बनता जा रहा है। इससे निपटने के लिये केवल सरकारों को ही नहीं, प्रत्येक मनुष्य को अपने स्तर पर कदम उठाने होंगे। पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियाँ नहीं हैं। वे हमारे बच्चों की धरोहरें हैं। वे जैसी हमें मिली हैं वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंप देना होगा। और इसके लिये हमें अपने लालच की पूर्ति के लिये प्रकृति का दोहन करना बंद करना होगा, उसका पोषण व संरक्षण करना होगा ताकि ताप के समय हमें प्रकृति की छाँव मयस्सर हो सके। कवयित्री अनामिका अंबर की ये पंक्तियां भी आपसे कुदरत को बचाने की गुहार लगा रही हैं-

हवाओं ने लिखी जिंदगानी, न रुख को बदलो मेहरबानी
हमारी सांसे ये कह रही हैं, कहीं सहारा नहीं मिलेगा।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने आईआईएमसी, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ-साथ लेखन कार्य कर रही हैं।

-->
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2